शब्दों का खेल


ये शब्द ही हैं जो सच्चा खेल खेलते हैं
कभी गम, कभी खुशियाँ देते हैं
आज के लोग शब्दों से बहुत खेलते हैं
कार्यालय में गए
तो कार्यकर्ता की देरी पे गालियाँ देते हैं
वही शब्द फिर सहायक की प्रशंसा करते हैं
दोपहर में फिर नम्रतापूर्ण निवेदन
मित्रों से खाने के लिए
वही शब्द चपरासी को
हड़काने के लिए
वही शब्द ‘फिर मिलेंगे’ कहने के लिए
वही शब्द ‘अलविदा’ कहने के लिए
शाम घर पहुंचे
भीगी बिल्ली सी आवाज में चाय की पुकार के लिए
वही शब्द पत्नी से बातें दो चार के लिए
वही शब्द फिर नींद में आवाज के लिए
सुबह हुई समाचार पत्र आया
फिर वही शब्द सरकार की प्रशंशा के लिए
कुछ देर बाद समाचार पत्र पढकर "क्या बकवास" है के लिए
ये शब्दों की खिलखिलाहट है
ये शब्दों का माजरा है
ये शब्दों की कहानी है
ये शब्दों का मुजरा है
शाम हुई बच्चों की याद आई
सोंच में शब्दों  में उनके भविष्य के विचार के लिए
शब्द  ही तो हैं जो करते हैं जो करते हैं
शब्दों  में पड़ोसन से आँखे दो चार
शब्दों में उनके कार्यों की प्रशंसा
शब्दों में ही पत्नी के काम चोर होने की निंदा
प्रेम का समय-नहीं फैशन के आगे
कहके बस शब्दों में पड़ोसन से पत्नी को बुरा बताके
शब्द  ही तो हैं कहाँ तक कहें
हुई लड़ाई पिता से तो शब्दों  में सम्मान भूल गए
हुई मिठास माँ से फिर सम्मान में झूल गए
गलती हुई छमा करना
यहाँ भी ये शब्द ही काम आते है
शाबास फिर से प्रगति करोगे
बात यही शब्द बनाते हैं
मित्र से मित्रता यही तो बनाते हैं
चाय के समय देर हुई
क्या महोदय जी "आप हमेशा लेट आते हैं"
दुकानदार से-
पत्नी को कुछ कुछ देना है
क्या दूँ
साहब बस ये बताएं क्या उम्र होगी
बस रसिया के शब्दों के जरिये
वो फिर आपको उल्लू बनाते हैं
"अरे ओ सांभा  कितने आदमी थे"
ये सुनके कुछ हंसी आती है
कहीं आदमी के भी आदमी होते हैं
पर क्या करें ये तो गब्बर के शब्द है जो हसीं लाते हैं
"अनेकता में एकता" चाचा नेहरु ने कहा था
ये उनके शब्द ही तो थे
जो आज वास्तिविकता की तरह
ह्रदय में प्रेमपूर्वक उतर जाते हैं
बुढापा आया-
बेटा जरा पानी दे देना
ये भी शब्द हैं जो एक पिता के हैं
और पुत्र का धर्म पानी देने का है
ये महा-"ऋषि" अपनी वाणी से बाताते है
-आया पिता जी पानी लेके मैं
-पास में रक्खा है खुद ही पी लो
दोनों बातें ये शब्द ही कहाते हैं
हम हँसते हैं, गाते हैं
हमारी ख़ुशी क्या है
यही शब्द तो व्यक्त कराते हैं
हमें वोट दीजिये हम नोट दते हैं
यही शब्द तो जनता के दिल में उतर जाते हैं
बस फिर क्या इधर से नोट लेना-उधर से भी
दोनों पक्षों को ये शब्द ही तो संतुस्ट कराते हैं
बस ये शब्द हैं की
करिश्मा दिखाते हैं
बात बनाते हैं
विजय दिलाते हैं-हिटलर के जैसी
भाई मान गए
सच में ये शब्दों का खेल है.


 ऋषि गुप्ता, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय दिल्ली 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

यह खेल खत्म करों कश्तियाँ बदलने का (आदिवासी विमर्श सपने संघर्ष और वर्तमान समय)

“सियाह रात नहीं लेती नाम ढ़लने का यही वो वक्त है सूरज तेरे निकलने का कहीं न सबको संमदर बहाकर ले जाए ये खेल खत्म करो कश्तियाँ बदलने...