विक्रांत कुमार की पांच कवितायेँ

  
1.
देवताओं की संस्कृति
और पतित देवता,
अंधेरे इतिहास के सियासत का हवाला देते हैं ।
कहते हैं-
“वो आवाज तब तलक जीवित रहेगी,
जब तलक कि दुनिया की छाती पर मैं बैठा रहूँ” ।

‘विषैले धतूरों की काँटेदार फसलें
और
देवलोक में मानव रक्त से सिंचित खेत’
सब धर्म का व्यापार है ।

जहाँ संसाधन,
सत्ता की रखैल बन गयी है
और धर्म,
देवलोक की अदालत में कानून बना रहा है ।

2.
उस रोज मैं,
दिवास्वप्न में रंगरलियाँ मना रहा था ।
वो खुरदरे टहनियों की छाल सी
झुलसी चमडियों के सहारे
धोती की फटी पोटली बांधे
हाथ में टीन का कटोरा लिए
भटक रही थी, फदर-फदर ।

मुह से झाग और बदबू,
फटे ब्लाउज से झाकता यौवन
शायद ! भूखमरी से सूख रहा था
अपनी अंतिम आस्था की यात्रा ताक में ।

मगर मैं भूल रहा था,
अपने दादा के बताये उन यादों को
कि कभी मैं भी भटकता था
चाँदनी रातों में,
अपनी चंचलता के साथ
टीन की गमली लिए
और चुनता था
जूठन ...।

3.
डगमगाते कदम ,
साथ छोडता आत्मविश्वास
कहीं ठहर तो नही गये हम ..
नियत स्थान पे ।
जहाँ अशांका के तौर पे ....भिनभिनाते संकट ..
जो रूक- रूक कर , मेरे सामने प्रश्न चिन्ह लगाते हुए,
बार- बार बढते कदम को जैसे खींच रहा हो ...
कह रहा हो , तुम्हारा प्रयास निर्रथक रहेगा...
क्योंकि तुम अपने बनाये रास्ते पे नही चल रहे हो..

4.
प्रियतमा की याद में,
आज इलाहाबाद
कल बनारस...
परसों दिल्ली
कहाँ -कहाँ नही गया ,
कहीं नही मिली ..।
अबकी बार खोजूंगा हूँ ,
अपने शहर में...
अपने गांव में ...
अपनी मिट्टी में ।

5.
खाली जुबान
बंद मुठ्ठी
धुंआ में तब्दील छुक-छुक विचारधारा
विस्फोट और बारूदी-गंध
गुरिल्ला -हमलावर
बिस्तर और बंदूक
प्रादेशिक -साहित्य
काली-पट्टी
लाल-झंडा
और चमड़-टोली का अड्डा
शायद ही किसी साहित्य को मिलता होगा ..
कोख पर भिन-भिनाती मक्खियों की भिन-भिनाहट
मुसहर-टोली से इन्कलाब की आहट ।



संपर्क : विक्रांत कुमार , हिंदी विभाग, गुरु घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर छत्तिसगढ  

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